नक्सलवाद: मानवीय जीवन के लिए भयावह

 

Dr. (Smt.) Vrinda Sengupta1, Dr. Ambika Prasad Verma2

1Assistant Professor (Sociology), Govt T.C.L..P.G. College, Janjgir

2Assistant Professor (Political Science), Govt T.C.L..P.G. College, Janjgir

 

सारांशः

जनजाति क्षेत्रों में खासकर विकास की चुनौतियां प्रायः सर्वविदित है। वर्तमान सरकार के अथक प्रयासों से विकास की गति तीब्र हो रही है एवं नक्सल क्षेत्रों में रहने वाले जनजीवन की आर्थिक, शिक्षा की स्थितियों में सुधार नजर आ रहे हैं।

 

भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन प्रारम्भ से ही पिछलग्गू रहा। वह अपना अस्तित्व कायम कर एक स्वतंत्र कम्युनिस्ट पार्टी को जन्म नहीं दे सका। जो भारत की तमाम वामपंथी शक्तियों को एक सूत्र में पिरोकर एक नई राजनैतिक प्रणाली और सामाजिक बदलाव के लिए जनता को गोल बंद करके दिशा दे सके। यह वह वक्त राष्ट्रीय परिदृश्य पर एक तरफ पं. जवाहरलाल नेहरु का व्यक्तित्व था। दूसरी तरफ डाॅ. राम मनोहर लोहिया का प्रबल कांग्रेस विरोध। आजादी की तरफ टकटकी लगाये लोगों का इस हकीकत से रुबरु होना पड़ रहा था कि देश से अंग्रेज जरुर चले मगर सŸाा की बागडोर काले अंगे्रजों को सौंप गये हैं। इसलिए तक तरफ कांग्रेस सरकार प्रयोग में बदली तो दूसरी ओर नक्सलवाद परिघटना में बंट गया था।

 

शब्द कुंजीः नक्सलवाद, आंदोलन, परिघटना, राजनैतिक प्रणाली।

 

प्रस्तावनाः

भारत में एक ऐसा आंदोलन, जिसका ऐतिहासिक स़्त्रोत योरोप हो और चरित्र सर्वहारा, इतिहास की खोज के लिए शुरुआत में दो अंतर संबंधी प्रक्रियाओं की समझ हासिल करना जरुरी है- प्रथम ब्रिटिश शासन के अधीन भारत का बदलता सामाजिक ढांचा और राजनीतिक परिदृश्य तथा दूसरा-

 

भारत में क्रांति के सवाल पर आंदोलन की मार्गदर्शक विचारधारा का क्रम विकास। कार्ल माक्र्स ने जिनकी भारत के प्रति रुचि उनकी भारतीय इतिहास पर नोट्स जैसी रचनाओं से जाहिर होती है। पूॅजी में कई स्थानों पर संसाधनों से भरे देश की ब्रिटिश द्वारा की गई लूट की चर्चा की गई है।

 

भारत में 80 प्रतिशत से अधिक लोग ग्रामों में रहने वाले कृषक हैं जो पीडित और शोषित श्रेणी में तो आते हैं किन्तु माक्र्सवादी दृष्टिकोण से लड़ाकू सर्वहारा श्रेणी में नहीं आते । इसलिए सर्वहारी का संगठित लड़ाकू शक्ति में वृद्धि जिस तीब्रता से ‘साम्यवादी क्रांति’ के लिए होनी चाहिए वह भारत में नहीं हो रही थी। दूसरी ओर माक्र्स और लेनिन के सिद्धांतों सेे आकर्षित होने वाले शिक्षित साम्यवादियों की संख्या बढ़ रही थी जो आंदोलन को तीब्र गति प्रदान करना चाहते थे।

 

उद्देश्यः

ऽ     छ.ग. से एवं भारत से नक्सलवाद/आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फंेकना।

ऽ     कृषि एवं अन्य रोजगार को नुकसान होने से बचाना।

 

परिकल्पनाः

ऽ     नक्सली व्यवहार से क्रूर होते है।

ऽ     नक्सली आदत से निर्दयी होते है।

 

 

शोध प्रविधि:

द्धैतीयक आंकड़ों जैसे पत्र, पत्रिकाएं , अभिलेख आदि का संग्रहण एवं मौलिक विचार।

 

नक्सलियों का प्रमुख हिंसात्मक घटनाएं (छ.ग.के संदर्भ में)ः-

नक्सलियों ने बड़े पैमाने पर हिंसात्मक घटना को अंजाम देना शुरु कर दिया है जिसमें उसका एक मात्र उद्देश्य सामने आया है वह पुलिस व सरकार को खत्म करना है।

 

ताड़मेटला:

06 अपे्रल 2010 दंतेवाड़ा जिला में मोकराना के जंगलों में हुआ। जब ब्त्च्थ् जवान सर्च करके वापस आ रहे थे तो नक्सलियों ने एम्बुस लगाकर फायरिंग कर दी। जिसमें 76 ब्त्च्थ् जवान मारे गयें।

 

एर्राबोर:

एर्राबोर में एक बार फिर नक्सली हमला हुआ। और ब्त्च्थ् के जवान काफी मात्रा में शहीद हुए।

 

दंतेवाड़ा जेलब्रेक:

नक्सलियों ने दंतेवाड़ा की जेलब्रेक कर अपने कई नक्सली साथियों को छुड़ा कर ले गए।

 

मदनवाड़ा:

यह घटना मदनवाड़ा जिला-राजनांदगांव में हुआ। जिसमें ैच्ए प्च्ै श्री विनोद चैबे सर्चिंग से लौट रहे रहे थे तो वे एम्बुस में फॅस गए।  ैच् श्री विनोद चैबे सहित पूरी पार्टी शहीद हो गए। यह घटना नक्सलियों की सबसे हृदय विदारक घटना है। यह नक्सलियों का दुर्दांत चेहरा दिखाता है।

 

निष्कर्ष:

ऽ     शिक्षा से ही समाप्त होगा नक्सल समस्या।

ऽ     युवाओं को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराकर।

ऽ     नक्सल हिंसा पीड़ित जिले में भी सा. आर्थिक विकास का नया वातावरण बनाना।

ऽ     नई पीढ़ी के विद्यार्थियों में उच्च शिक्षा की ललक पैदा करना।

ऽ     जनता को विभिन्न प्रकार की बुनियादी सुविधा उपलब्ध कराना।

 

पिछले 36-37 बरस नक्सलवादियों के आत्म मंथन के वर्ष रहे है। चीन में माओं और सोवियत में स्टालिन की दुर्गति ने भी नयी जमीन तलास करने के लिए नक्सलवादियों को भी विवस कर दिया है। इसका परिणाम यह निकला कि बगैर जन चेतना पैदा किये बंदूक की नाल से सŸाा पर कब्जा करने की जो गलती हो गई थी । उस पर फिर से विचार किया जाने लगा। भूमिगत आंदोलन के बजाय खुले जन आंदोलन के मार्फत जनता को जगाने का फैसला भी लिया गया। बिहार में वोट की राजनीति में हिस्सा लेकर जन आंदोलनों को नया सिरे से संगठित कर आई. पी. एफ. ने जो जगह बना ली है। उस पर तमाम वामपंथी घड़ों की निगाहें टिकी हुई हैं। आई. पी. एफ. दिल्ली रैली ने भी अपनी ताकत का अहसास दिला ही दिया था। नक्सलवादी आंदोलन इस वक्त संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। यह आत्म मंथन अभी जारी है कि सŸाा बंदूक की गोली से मिलेगी अथवा विशाल देश की जनता को गोलबंद करके।

 

संदर्भ:

1.   अरिंदम सेन, पार्थ घोष- भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन, खण्ड-एक समकालीन प्रकाशन, 1992, पटना, पृष्ठ - 20,

2.   पंूजी, खण्ड-1, अध्याय ग्ट, भाग-5, प्रोग्रेम पब्लिशर्स, (मास्को), 

3.  अयोध्या सिंह- इंडियन नेशनल मूवमेंट, ऐ शार्ट एकाउंट, (कलकत्ता,1980), अरिंदम सेन, पार्थ घोष, पृष्ठ 22-23

 

 

 

Received on 28.02.2015       Modified on 12.03.2015

Accepted on 24.03.2015      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences 3(1): Jan. –Mar., 2015; Page 04-05